जिलाध्यक्ष की सूची का विश्लेषण बताता है कि जिन संगठन जिलों के जिलाध्यक्ष का जुगाड़ खास नामों के साथ था, वे बचे रहे और जो अप्रासंगिक बड़े नेताओं के करीबी हैं- वह हटा दिए गए। कुछ ऐसे भी नाम हैं, जिन्होंने अपनी कुर्सी पर खतरा देख वैकल्पिक व्यवस्था सामने रख दी।

फोटोः सोशल मीडिया
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बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रही है। उसकी पीठ पर ही 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव भी होगा। ऐसे में बिहार बीजेपी की तैयारी जानकर एकबारगी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी चौंक जाएंगे। बिहार में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष को बदलने की पिछले साल के अंतिम महीनों से कवायद चल रही, लेकिन राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्‌डा के कार्यकाल में विस्तार देख डॉ. संजय जायसवाल ने इसी तरह का जुगाड़ लगाना शुरू किया है। जायसवाल ने अपने समानांतर खड़े हो रहे मोर्चों को साधने के लिए अंतिम कोशिश करते हुए 9 मार्च को राज्य के 45 सांगठनिक जिलों के जिलाध्यक्ष घोषित कर दिए। जिलाध्यक्षों का मनोनयन अमूमन कोई भी प्रदेश अध्यक्ष अपने हिसाब से करता है, लेकिन विदाई की खबरों के बीच डॉ. संजय जायसवाल ने 45 सांगठनिक जिलों के अध्यक्ष का मनोनयन कर सूची जारी कर दी।

इस सूची पर बवाल से बचने के लिए जायसवाल ने उन बड़े नामों को साध लिया, जो उनकी अध्यक्ष की कुर्सी के लिए खतरा बन सकते थे। जायसवाल ने अपने पहले के प्रदेश अध्यक्ष और वर्तमान में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे नित्यानंद राय को भी खुश रखा और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह को भी नाराज नहीं किया। 45 जिलाध्यक्षों की सूची का गहन विश्लेषण बताता है कि जिन संगठन जिलों के जिलाध्यक्ष का जुगाड़ ऐसे नामों के साथ था, वह बचे रहे और जो अप्रासंगिक बड़े नेताओं के करीबी हैं- वह हटा दिए गए। अपवाद के रूप में कुछ ऐसे भी नाम हैं, जिन्होंने अपनी कुर्सी पर खतरा देख वैकल्पिक व्यवस्था सामने रख दी। जैसे पटना महानगर के जिलाध्यक्ष की कुर्सी अहम थी और यहां अभिषेक कुमार टिके रह गए। कारण यह कि उन्होंने अपनी पत्नी को पटना के डिप्टी मेयर की अहम कुर्सी तक पहुंचाकर जता दिया था कि उन्हें छेड़ना ठीक नहीं।

जो भी काट बनते, उनके लोगों को सेट किया

प्रदेश अध्यक्ष ने जिन जिलाध्यक्षों के मनोनयन की सूची जारी की, उसे देखने पर पता चलता है कि विधान परिषद् में नेता प्रतिपक्ष सम्राट चौधरी का प्रभाव भी है और पिछले दिनों भूमिहारों का बड़ा सम्मेलन करा केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह तक को बुलाने में कामयाब रहे राज्यसभा सांसद विवेक ठाकुर का भी असर है। प्रभाव का असर मुजफ्फरपुर में दिखा, जहां जिलाध्यक्ष बदलने के लिए भाजपा कोटे से मंत्री रह चुके एक नेता पूरी ताकत झोंककर रह गए। वहां रंजन कुमार को नहीं हटाकर जायसवाल ने एक कद्दावर केंद्रीय मंत्री की नाराजगी मोल नहीं ली।

पटना के ग्रामीण इलाकों में एक राज्यसभा सांसद की पैरवी चली तो बेगूसराय जैसे महत्वपूर्ण इलाके में प्रभाव जमाने की एक केंद्रीय मंत्री की कोशिश पर जायसवाल ने मुहर लगाई। बताया जा रहा है कि भूमिहार जाति के प्रदेश अध्यक्ष को लेकर कोई संभावना खड़ी नहीं हो, इसके लिए जायसवाल ने सबसे ज्यादा इस समीकरण का ध्यान रखा। बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता विजय कुमार सिन्हा की पसंद-नापसंद का भी मनोनयन में ध्यान रखा। इसी तरह पिछड़ी जाति से किसी का नाम सामने आने से बचाने के लिए जायसवाल ने बिहार विधान परिषद् में नेता प्रतिपक्ष सम्राट चौधरी की ज्यादातर अनुशंसाओं का ख्याल रखा। 

केंद्रीय मंत्री की रेस में रहे थे संजय जायसवाल

पिछले साल जब केंद्र में मंत्रिमंडल विस्तार की सुगबुगाहट थी तो कहा गया कि बिहार भाजपा से दो नाम आगे हो गए और किसी को नाराज नहीं करने के लिहाज से दोनों को ही बाहर रखा गया। एक नाम राज्यसभा सांसद और राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का चला था और दूसरे थे लगातार तीसरी बार सांसद बने डॉ. संजय जायसवाल। जायसवाल ने नड्‌डा को बांधे रखा था तो सुशील मोदी गृह मंत्री व पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के करीब थे। दोनों में से कोई अध्यक्ष नहीं बने। सुशील मोदी अब भी बिहार में लालू परिवार के खिलाफ सबसे मजबूत मोर्चा खोले रहते हैं और बीच में शांत होने के बाद एक बार फिर सक्रिय हैं। सांगठनिक जिलों के जिलाध्यक्षों के मनोनयन में सुशील मोदी की वैसी नहीं चली, जैसी इसके पहले चलती रही थी। नित्यानंद राय जब प्रदेश अध्यक्ष थे, तब तक सुशील मोदी प्रभावी रहते थे। विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे तक उनका प्रभाव था, लेकिन 2020 में जब उन्हें केंद्रीय नेतृत्व ने बिहार से विदा कराया तो धीरे-धीरे संगठन ने भी उन्हें काटना शुरू कर दिया।

नितिन के नाम की चर्चा सबसे अधिक, मगर संभावना कम

बिहार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का बदलना काफी हद तक तय है। भले संजय जायसवाल जितना जुगाड़ कर लें, लेकिन माना जा रहा है कि 2025 के विधानसभा चुनाव और उससे पहले 2024 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन से लड़ाई के समीकरण के हिसाब से प्रदेश अध्यक्ष लाया जाएगा। फिलहाल, पटना के बांकीपुर विधायक और पूर्व मंत्री नितिन नवीन के नाम की चर्चा तेजी से चल रही है, लेकिन समीकरणों के हिसाब से देखें तो इस नाम की संभावना नहीं दिखती है। नहीं दिखने की वजह यह है कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर भाजपा प्रभावी या युवा नेता की जगह महागठबंधन से मुकाबले के लिए जातिगत आधार पर प्रभावी नेता को मौका देगी।

दरअसल नितिन नवीन कायस्थ जाति से हैं, जिसका प्रभाव पटना समेत 20 शहरों की ही विधानसभा सीटों पर है। इस जाति से प्रदेश अध्यक्ष की संभावना इसलिए भी कम है, क्योंकि लंबे समय से इस जाति के नेताओं का लोकसभा और विधानसभा में टिकट कटने पर भी भाजपा के इस वोट बैंक पर असर नहीं पड़ा। नितिन नवीन को यह कुर्सी नहीं देने पर भी प्रभाव नहीं पड़ेगा। ऐसे में एक पूर्व केंद्रीय मंत्री व सांसद इस सीट पर प्रभावी हो सकते हैं। नए सांगठनिक फेरबदल में जायसवाल के सामने इन्होंने कोई मांग भी नहीं रखी है और महागठबंधन को टक्कर देने के लिहाज से जातिगत आधार पर उनकी दावेदारी ज्यादा मजबूत हो सकती है।




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